Tuesday, October 30, 2018

वक्त की आड़

और अब मैं क्या कहूँ
लफ्ज़ ही बेबुनियाद है
एक तो वक्त की आड़ है
दूजा ऊपरवाले की मार है।
पीड़ा तो अंतर्मन की है
जताना ही बेकार है
क्या दे दोगे तुम हल
जो खुद पर इतना इख्तियार है !
ताक रही आँखे हैं
बैठा संग लिए आस है
एक किरण की चाहत है
सुना था अंधियारे के बाद उजियार है ।
आड़ लगा इस वक्त का
देख लिया रुप सबका
खुद को मखमल पर सोने में भी चैन नहीं
और कहते तुम्हारा हाल सुनने की फुरसत नहीं ।
यूँ इसको शांत सरल न समझो
एक चिंगारी ही काफी है पूरी आग के लिए
वक्त की आड़ सिर्फ़ आज है
होना तो कभी ऊपरवाले को भी मेहरबान हैं ।
                            _ रुचि तिवारी

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