और अब मैं क्या कहूँ
लफ्ज़ ही बेबुनियाद है
एक तो वक्त की आड़ है
दूजा ऊपरवाले की मार है।
लफ्ज़ ही बेबुनियाद है
एक तो वक्त की आड़ है
दूजा ऊपरवाले की मार है।
पीड़ा तो अंतर्मन की है
जताना ही बेकार है
क्या दे दोगे तुम हल
जो खुद पर इतना इख्तियार है !
जताना ही बेकार है
क्या दे दोगे तुम हल
जो खुद पर इतना इख्तियार है !
ताक रही आँखे हैं
बैठा संग लिए आस है
एक किरण की चाहत है
सुना था अंधियारे के बाद उजियार है ।
बैठा संग लिए आस है
एक किरण की चाहत है
सुना था अंधियारे के बाद उजियार है ।
आड़ लगा इस वक्त का
देख लिया रुप सबका
खुद को मखमल पर सोने में भी चैन नहीं
और कहते तुम्हारा हाल सुनने की फुरसत नहीं ।
देख लिया रुप सबका
खुद को मखमल पर सोने में भी चैन नहीं
और कहते तुम्हारा हाल सुनने की फुरसत नहीं ।
यूँ इसको शांत सरल न समझो
एक चिंगारी ही काफी है पूरी आग के लिए
वक्त की आड़ सिर्फ़ आज है
होना तो कभी ऊपरवाले को भी मेहरबान हैं ।
एक चिंगारी ही काफी है पूरी आग के लिए
वक्त की आड़ सिर्फ़ आज है
होना तो कभी ऊपरवाले को भी मेहरबान हैं ।
_ रुचि तिवारी
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