Saturday, October 20, 2018

पाबंदी

ये पाबंदी का भी क्या नूर है
लगाने वाला भ्रम में मगरुर है
छाया अलग ही एक फितूर है
झेलने वाला ' बेचारे  ' के नाम से मशहूर है।
साँसों को भी पाबंदी है
कब आना है कब जाना है  उस पर नाकाबंदी है
खाने से भी है इसकी यारी
मिलना न मिलना नसीब है ।
बोलने की जुबां नहीं लफ्ज़ तो पडे़ ढेर है
घूमने की तो सोचना ही फिजूल है
लगा दी पाबंदी रहने, खाने , चलने में
पर सोच तो बढ़ रही है उसी अंधेरे में ।
उम्मीद ही काफी है मुक्ति के लिए
पंख नहीं हौसला चाहिये उड़ने के लिये
एक गूँज उठेगी उस दिन जब
तोड़ ये पाबंदी निकल उडे़गा वो मन ।

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