Thursday, June 2, 2022

थैंक्यू KK! हम रहें या न रहें कल, कल याद आएंगे ये पल, प्यार के पल...

KK, 90's के दौर का वो नाम जिसकी आवाज सुन हम सभी बड़े हुए। 'कुछ करने की हो आस-आस... आशाएं' या 'अभी-अभी तो मिले हो, अभी न करो छोड़ने की बात'। दोस्तों के लिए सबसे ज्यादा डेडिकेटड सॉन्ग 'यारों दोस्ती बड़ी ही..' या 'आंखों में तेरी अजब सी अजब सी अदाएं हैं'। 'जिंदगी दो पल की... इंतजार कब तक ...' 'तड़प-तड़प के इस दिल से आह निकलती रही' 'दिल इबादत कर रहा है',  'जरा सी दिल में दे जगह तू, जरा सा अपना ले बना', 'तू जो मिला, तो हो गया सब हासिल'... कितनी यादें हैं इन गानों के साथ। हजारों दफा गुनगुनाया। मूड ऑफ रहा तो भी KK और मूड मस्त रहा तो भी KK... सच में KK 'हम रहें या न रहें कल, कल याद आएंगे ये पल, प्यार के पल' थैंक्यू! जीवन के सफर को खूबसूरत गानों से सजाने के लिए। 


जिंदगी, आकस्मिक है। कभी भी कुछ भी हो सकता है। जिंदगी में अपनी आवाज से रंग भरने वाले KK चले गए,  लेकिन ताउम्र हम सब के बीच रहेंगे।

- रुचि तिवारी


जिंदगी भर की भागदौड़ और संघर्ष जिसके लिए... वो है '2 जून की रोटी'

रोटी। क्या-क्या नहीं किया जाता इसके लिए। कोई तपती धूप में हाथठेला लेकर फेरी लगता है तो कोई दिनभर मजदूरी। कोई ऑफिस में बॉस की डांट खाता है तो कोई घर-घर दरवाजा खटखटाता है। कोई रात में चोरी करता है तो कोई फेके जा रहे खाने को एकटक निहारता है। इस रोटी के लिए लोगों को लड़ते देखा है। परिवार के एक सदस्य को कई दफा दो रोटी कम खाते देखा है। इस गोल-गोल रोटी ने न जानें कितनों को अपने इशारों पर घुमाया है। किसी को नचाया है तो किसी से करतब कराया है। 


ताउम्र लोगों ने भागदौड़ की है। बहुत सहा है, जीवन में संघर्ष किया है। सुबह से वो निकलता है। हाथों में बैग और दिमाग में आज नहीं, कल नहीं, तीन दिन बाद तक की जिम्मेदारी का बोझ लिए। आज की मेहनत से ही सुखद 2 वक्त की रोटी नसीब होगी। 


आज 2 जून है। कहा जाता है कि बड़े किस्मतवाले होते हैं वो लोग, जो 2 जून (वक्त) की रोटी खा पाते हैं। हां, यह सच है। मैंने कई लोगों को रात में बिना खाए सोते देखा है। रोटी नहीं होने पर 'कुछ भी' खाकर पेट भरते हुए देखा है। वो कुछ भी मेरे लिया था क्योंकि मुझे कभी भी खाने की कमी महसूस नहीं हुई। आज भी याद है- कटनी रेलवे जंक्शन। मैं काफी छोटी थी। शायद 7th क्लास में थी। अपनी फैमली के साथ ट्रेन का इंतजार कर रही थी। जिस प्लेटफॉर्म पर हम थे, वहीं एक पतली सी मुझे अजीब सी दिख रही महिला थी। उसके साथ दो छोटे-छोटे बच्चे। मुझसे भी छोटे थे। मेरे हाथ में कुरकुरे का पैकट था। वह महिला अपने बच्चों को एक डब्बे में, जो कि ट्रांसपैरेंट था। उसमें पोहे में पानी और नमक या शक्कर मिलाकर कुछ खिला रही थी। तब मुझे बहुत अजीब लगा और मैंने अपनी मम्मी से कहा कि ये क्या खिला रही है वो अपने बच्चों को ? 


मेरे हाथ में जो पैकेट था उसे मम्मी ने तुरंत ले लिया और कहा कि उन लोगों के यहां कि वो स्पेशल डिश है, जो हमारे यहां नहीं बनती। हम पोहा अलग तरीके से बनाते हैं और वो अलग। शायद तब मम्मी को यही समझाना सही लगा। मैं उन्हें तब तक देखती रही, जब तक ट्रेन नहीं आई। उन लोगों को ट्रेन में नहीं जाना था। वो आंटी बच्चों को खिलाने के बाद प्लेटफॉर्म में साइड में सुला दी। और फिर अपने काम में लग गई। काम। उनका काम था वहां आ रहे-जा रहे लोगों से पैसे इकट्ठा करना और '2 जून की रोटी' जुटाना। यह बात काफी समय बाद पता चली। 


कुछ महीनों बाद मुझे भी घर से दूर पूरे 3 साल होने वाले हैं। इन सालों में सबसे बड़ी बात जो समझ आई वो यही कि ये '2 जून की रोटी' सच में हर किसी को नसीब नहीं होती। जिंदगी भर की भागदौड़ और संघर्ष, जो हमारे पैरेंट्स करते हैं वो सिर्फ इसलिए कि हां, हमारी थाली ऐसी हो जिससे दिल खुश हो जाए और खाना खाकर सुख मिल जाए...

-रुचि तिवारी

Thursday, May 19, 2022

अच्छा ठीक है...

अक्सर, जिंदगी में ऐसे लोगों की एंट्री हो जाती है, जिनके साथ एक समय तक सबचकुछ सही चल रहा होता है। इस बीच एक ट्विस्ट आता है और सब तितर-बितर हो जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ यामी के साथ। यामी के साथ कोचिंग में पढ़ने वाला यश काफी अलग था। शायद इसलिए क्योंकि सबके विचारों से उसके थॉट्स मैच नहीं होते थे। यामी को वो काफी अलग लगा। सो चुलबुली सी यामी ने बात करने की कोशिश की। धीरे-धीरे यामी और यश काफी अच्छे दोस्त बन गए। 


अब कोचिंग सेंटर से दोनों का घर एक ही रास्ते पर था, सो आना-जाना साथ में होने लगा। बातें बढ़ी और नजदीकी भी। लेकिन कहते हैं न किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती है। यहां भी पेंच अति पर ही फंस गया। अब सबके साथ मैच नहीं होने पर यश को लगने लगा कि यामी का उसके अलावा कोई अच्छा दोस्त नहीं है। और यहीं से सब कुछ बिगड़ना शुरू हो गया। अति चलो एक बार ठीक है, लेकिन जब सामने वाले से आप कुछ ज्यादा ही आस लगाकर बैठ जाओ और बदले में वो ऐसा न करे तो हां, सचमुच में बहुत बुरा लगता है। 


अब इसी दौर से गुजरने लगा यश। उसने यामी से कुछ ज्यादा ही एक्सपेक्ट कर लिया। नतीजा ये निकला की दोनों के बीच बहस शुरू होने लगी। बात नहीं सिर्फ बहस होती थी। बहुत समझाने के बाद भी कुछ भी ठीक नहीं हुआ और बातें बंद हो गई। एक दिन अचानक मोबाइल में नोटिफिकेशन आया। नोटिफिकेशन पॉप अप टेक्स्ट मैसेज का था। लिखा था- 'यश, दिल्ली में एडमिशन हो गया है। अगले सप्ताह चली जाऊंगी।' तुरंत रिप्लाई गया- 'एक बार मिलोगी नहीं ?' कुछ टाइम बाद रिप्लाई आया हां, लेकिन, चलो अच्छा ठीक है... लेट्स कैच अप इन इवनिंग एट 5... लेट मत होना... मैसेज देख यश ने काफी देर बैठा रहा। कुछ देर बाद यश ने लिखा- अच्छा ठीक है, कोशिश करूंगा। 

Sunday, December 26, 2021

शायद तुम्हारे साथ की जरूरत होगी...




एक चहकती हुई लड़की,
जब अचानक चुप हो गई होगी,
कोई तो बात उसे कचोट गई होगी
तब, शायद उसे तुम्हारे साथ की जरूरत होगी।

भरी भीड़ में भी वो अकेली होगी,
तमाम साथों के बीच तुम्हारे हाथ की नमी की कमी होगी,
गुजर गया होगा दिन, लेकिन रात नहीं कटी होगी
तब, शायद उसे तुम्हारे साथ की जरूरत होगी।

बात करने को बात नहीं होगी,
लेकिन होटों पर शब्दों की माला होगी
कहा कुछ भी नहीं, अजीब-सी शांत होगी,
तब, शायद तुम्हारे की जरूरत होगी।

कई दफा बातों-बातों में अपनी परेशानी कही होगी,
तुम्हारी बातें काट, अनसुनी की होगी,
हो सकता है भरे बाजार अकेली होगी
सब कुछ होकर भी कोई कमी होगी,
तब, शायद उसे तुम्हारे साथ की जरूरत होगी।

-रुचि तिवारी

Monday, June 14, 2021

सार्थक मुलाकात




बेशक एक मुलाकात होगी,
किसी राह या किसी मोड़ पर,
होठों पर दबे हजार सवाल,
बाहर आने को आतुर होंगे,
उन सवालों के जवाब पाने,
जो बातों के सिलसिले में अधूरे रह गए थे।
जवाब दोनों को चाहिए,
उन सवालों के नहीं; जिन्हें पूछने पर भी जवाब नहीं मिला,
बल्कि उन सवालों के जो तुम्हें देखकर मन में उठे,
वो सवाल, जब तुमने कुछ कहा और मैं स्तब्ध रह गई थी।
मुलाकात के दौरान,
इन सभी सवालों को एक माला में पिरोकर लाउंगी,
तुम माला तोड़ना और एक-एक मोती में चीखते सवाल का जवाब देना,
फिर इस मुलाकात को मैं 'सार्थक मुलाकात' का नाम दूंगी।

- रुचि तिवारी

Sunday, March 28, 2021

जिंदगी में तलाश...

किसी की जिंदगी बाजार है,
तो किसी कि एक बंद कमरा।
ऐसा कमरा जहां सालों की यादें कैद हैं,
लेकिन उन यादों को जीने वाला कोई नहीं।
अब उस कमरे की ओर कोई नहीं निहारता,
कुछ पुराने सामान अब भी हैं वहां,
जिनकी शायद अब जरूरत नहीं,
इसलिए उस कमरे को निहारने की किसी को भी फुर्सत नहीं।

जिसकी जिंदगी बाजार है,
वहां रोज़ नए लोगों का आना-जाना है,
विचारों का आदान-प्रदान है,
मिलन है, स्फूर्ति है, खुशी है।




बंद कमरा एक खिड़की निहार रहा है,
रोशनी की तलाश है,
चाह है उसे किसी अपने को पाने की,
तो वहीं बाजार सुकून तलाश रहा है,
जहां दो पल उसे फुर्सत के मिलें
और वो खुद को स्थिर कर सके।

-रुचि तिवारी

Saturday, March 20, 2021

चाहती मैं भी नहीं थी कि तुमसे तुम्हारा 'अधिकार' छीन लूं,
लेकिन मुझे ये बरदार्शत नहीं कि अपना 'हक' किसी और के नाम लिख दूं।

थैंक्यू KK! हम रहें या न रहें कल, कल याद आएंगे ये पल, प्यार के पल...

KK, 90's के दौर का वो नाम जिसकी आवाज सुन हम सभी बड़े हुए। 'कुछ करने की हो आस-आस... आशाएं' या 'अभी-अभी तो मिले हो, अभी न करो ...