Thursday, October 18, 2018

उस संकीर्ण सोच का पतन : एक कोशिश

"अरे ! मिश्रा जी , आपने सुना यादव जी की बेटियाँ तो गजब ही कर रहीं हैं ।"
" अरे ! गोपाल जी अब ऐसा क्या कर दी ? , सच में वकील बन गई क्या बड़ी लड़की ? "
" नहीं नहीं मिश्रा जी , इस बार तो अति की है उनकी छोटी बेटी ने । यादव जी बडे़ गर्व से बता रहे थे कि वो पत्रकारिता की पढा़ई करने जा रही है।  "
" राम राम राम ! सत्यानाश ! सुबह-सुबह से यही खबर सुनाना था आपको । ये यादव जी कुछ ज्यादा ही छूट दे रहें हैं अपनी बेटियों को , लाज शर्म तो बची ही नहीं है।"
" मिश्रा जी , भला आप ही बताओ लड़कियों को वकील , पत्रकार आदि कौन बनाता है । न जाने दिनभर कितने आदमियों से मिलेंगी , कितनो के साथ उठना बैठना करेंगी , कहाँ-कहाँ अकेली जाएँगी  ।"
" हाँ , गोपाल जी , कोर्ट कचहरी भला लड़कियों के जाने  लायक जगह है क्या ? अब वो बगलवाले ठाकुर जी कि बिटिया को ही देख लो । ' सेल्स रिप्रेजेंटेटिव है ।' शर्ट पेंट पहनकर सुबह 10 बजे चली जाती है और रात 9.00 _ 9.30 तक वापस आती है। भला लड़की जात को ये सब शोभा देता है क्या ? "
कितनी अजीब बात है कि आज भी एक ऐसी संकीर्ण सोच का शिकार हमारा समाज है । जहाँ  एक तबका बेटियों के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का रोडा़ लिये खड़ा है।
क्या ऐसी संकीर्ण मानसिकता  एक  विकसित देश का सपना पूरा होने देगी ??
                   ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जहाँ  लड़कियों को  लड़कों के साथ कदम सेयकदम मिलाकर नहीं  चलना होगा ? बात सिर्फ़ इतनी सी है कि हमें  अपनी मानसिकता साफ़ कर समाज को उस काबिल  बनाना होगा  जिसमें कोई भी तबका लड़का या लड़की देखकर किसी क्षेत्र का बँटवारा न करे ।
इस नवरात्रि ( दुर्गा विसर्जन ) एवं दशहरा ( दशानन  पतन) करते वक्त एक कोशिश करें  उस संकीर्ण सोच के पतन की जो भेदभाव  को मिटाने  और देश की उन्नति में रोडा़ है।
#happy_navratri
#happy_dushehra
                                             _ रुचि तिवारी
नोट : कहानी में  उपयुक्त पात्र काल्पनिक है एवं विचारों  को प्रकट करने के लिए लेखिका द्वारा माध्यम बनाये गए हैं ।

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