१ नवंबर को रचनाकार " सुरेश कुशवाहा ' तन्मय ' " जी कि " मानसिकता " नामक लघुकथा पढ़ी । उनकी रचना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या अब हम वही भारतीय रह गये हैं जिनके लिए देश की माटी , देश के किसान , हमारे स्वदेशी उत्पाद सर्वोपरि थे ? या कहीं बहुत कुछ खो सा गया है ? आप सभी के साथ वह लघुकथा और अपने विचार साझा करने का विचार की और दो दिन बाद सुरेश सर के संपर्क में आकर अपने ब्लाग पर पब्लिश करने की अनुमति ली। खैर , दिवाली को लेकर चल रही तैयारियों की व्यस्तता के चलते थोड़ी देर से आपके समक्ष ला रहीं हूँ ।
लघुकथा इस प्रकार है ~
" मानसिकता "
दीपावली से दो दिन पहले खरीदारी के लिए वो सबसे पहले पटाखा बाजार पहुंचा। अपने एक परिचित की दुकान से चौगुनी कीमत पर एक हजार के पटाखे खरीदे।
फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली।
इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया।
कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।
फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली।
इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया।
कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।
“ क्या भाव से दे रहे हो यह दीये ? ”
“ आईये बाबूजी, ले लीजिये, दस रूपये के छह दे रहे हैं ”
“ अरे! इतने महंगे दीये, जरा ढंग से लगाओ, मिट्टी के दीयों की इतनी कीमत ? ”
“ बाबूजी, बिल्कुल वाजिब दाम में दे रहे हैं। देखो तो, शहर के विस्तार के साथ इनको बनाने की मिट्टी भी आसपास मुश्किल से मिल पाती है। फिर इन्हें बनाने सुखाने में कितनी झंझट है। वैसे भी मोमबत्तियों और बिजली की लड़ियों के चलते आप जैसे अब कम ही लोग दीये खरीदते हैं। ”
“ अच्छा ऐसा करो, दस रूपये के आठ लगा लो ”,
दुकानदार कुछ जवाब दे पाता इससे पहले ही वह पास की दुकान पर चला गया। वहां भी बात नहीं बनी। आखिर तीन चार जगह घूमने के बाद एक दुकान पर मन मुताबिक भाव तय कर वह अपने हाथ से छांट-छांट कर दीये रखने लगा।
“ ये दीये छोटे बड़े क्यों हैं? एक साइज में होना चाहिए सारे दीये ”
“ बाबूजी, ये दीये हम हाथों से बनाते हैं, इनके कोई सांचे नहीं होते इसलिए.... ”
घर जाकर पत्नी के हाथ में सामान का झोला थमाते हुए वह कह रहा था –
“ ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं। ”
_ सुरेश कुशवाहा ' तन्मय '
“ ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं। ”
_ सुरेश कुशवाहा ' तन्मय '
सबसे पहले गौर करने वाली बात यह है कि रचनाकार ने कितनी खूबसूरत तरीके और चुनिन्दा शब्दों के जरिये इतनी बड़ी बात कह दी । सही ही तो है , अगर वही दीये किसी दुकान में पैकेट में 80 रु. के 6 प्राइस टैग के साथ बिकते तो बेशक खुशी-खुशी बिना मोल-भाव किए खरीद लेते । क्यों ? क्योंकि उसमें टैग लगा होता एम आर पी (MRP) का । यह बात सिर्फ़ दीयों तक सिमित नहीं । चलिए एक और उदाहरण लेते है , हमारे घर के नजदीकी बाजा़र में बैठे या हमारे घर के दरवाजे तक आने वाले सब्ज़ी या फल वाले भईया का । उनके पास से सब्ज़ी या फल खरीदते वक्त हमारी प्रतिक्रियाएं कुछ इस प्रकार होती हैं ~ अरे भईया ! बहुत मँहगा बता रहे है , सही रेट बताईये । यूँ कुछ 10 ~15 मिनट मोलभाव कर खरीददारी होती है परंतु वही सब्ज़ी या फल हम बिना मोलभाव के माॅल से ले आते है । वह भी उससे मँहगी कीमत पर । वहाँ क्यों नहीं मोलभाव किया जाता ?? कमी सिर्फ़ प्राइस टैग की ही तो है इन लोगों के पास । वस्तु एवं उत्पाद तो वही है ।
एक बात और है कि अब दीपावली पर माटी के दीये कम और मोमबत्तियाँ एवं रंग बिरंगी लाईट प्रचलन में ज्यादा है । स्वदेशी उत्पाद को छोड़ विदेशी के पीछे भागना और परंपरागत तरीकों को रौंदते हुए नए तरीके से त्योहार मनाना एक विचारणीय विषय है ।
_ रुचि तिवारी
_ रुचि तिवारी
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