Tuesday, November 6, 2018

आज नहीं ' अभी ' में जीते हैं

दृश्य 1 : एक जनरल किराना स्टोर , यूँ तो मैं भाई के साथ खड़ी थी और गोलू के खटाखट सामान निकलने की तरकीब गौर कर रही थी तभी वहाँ 3 साल की रूही आई । रूही को मैं जानती नहीं थी । वह अपने दादा जी के साथ आई थी। हम भी खरीददारी कर ही रहे थे । रूही की पायल की छनक ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा । सफेद रंग की प्यारी-सी फ्रॉक में वह खिलखिलाता हुआ चेहरा और चमकदार बदन में वह किसी असली परी को हराकर अपना ही नूर बरसा रही थी । दुकान में प्रवेश उसने जिस खिलखिलाहट से थी उससे तो वहाँ का पूरा समां ही बंध गया था। दादा जी भी सामान की पर्ची गोलू को थमा स्नैक्स काॅर्नर गये और वहाँ पर रूही के बोलते ही " बब्बा ये वाला ये वाला " करते वो सारे पैकेट उठाते गये जबतक रूही ने चुप होकर राहत भरी साँस नहीं ले ली । तब तक गोलू भी दादा जी का पूरा सामान लगभग पैक कर ही चुका था ।   वो सारे पैकेट्स गोलू को दिए और अलग बैग में रखने को कहा । वह अलग बैग उन्होंने रूही को पकड़ाया । बैग पकड़ते ही रूही के चेहरे की चमक संग उसने जो चाल चलनी शुरू की उसे देख ऐसा लग रहा था मानों रुही को वह पूर्ण संतुष्टी मिल गई हो जो उसे जीवन में चाहिये थी। बैग में इतना कुछ भी नहीं था कि उसे वह दो से तीन दिन तक रख सके । सिर्फ़ चिप्स के तीन या चार पैकेट जिन्हे वह चंद घंटों या ज्यादा से ज्यादा शाम तक में  खत्म कर सकती है ।
दृश्य 2 : मार्केट से वापस लौटने पर घर के पास ही रह रहे 6 वर्षीय सुबोध पर नज़र गई । उसके घर की पुताई का अंतिम ही चरण चल रहा था आज । पुताई वाले अंकल लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़े पुताई कर रहे थे। सीढ़ी में नीचे तरफ़ जूट की उलझी हुई-सी रस्सी उसी में बंधी हुई फैली थी जिसमें अचानक वहाँ से आते-जाते कोई भी फँसकर गिर सकता था । सुबोध के पास वैसे तो खिलौने का अंबार है। कोई उसके खिलौने छू भी नही सकता । हाँ , आरती , स्नेहा , परी, आरु , क्षति और शुभ के साथ खेलते वक्त थोडा़ बाँट लेगा पर अगर कभी बिना साहब के मूड के छू लो तो खैरियत खुद की मनानी पड़ती है। खैर , आज सुबोध उन खिलौनों की दुनिया से दूर उस रस्सी को सुलझा रहा था जो किसी "  पज़ल " से कम नहीं  थी। ऊपर बालकनी से आंटी उसे चिल्ला चिल्लाकर मना कर रहीं थी पर वह तो " अभी " में जी रहा था । " अभी " उसके पास खेलने सिर्फ़ वह रस्सी थी । उसने यह नहीं सोचा कि सिर्फ़ आज तक ही उस रस्सी और सीढ़ी का उसके साथ साथ है । इस समय उसे सिर्फ़ वह रस्सी सुलझाना था जो उसके सामने थी मानों जैसे की उसके जीवन का लक्ष्य सिर्फ़ पूर्ण करके हासिल होगा।
             कितनी अनोखी होती है इन मासूमों की दुनिया । न तो कल किससे खेले थे उसकी सुध और न तो कल किससे खेलना है उसकी चिंता । आज क्या करना है क्या नहीं न तो कोई शैड्यूल और न ही टाइम मैनेज कर मीटिंग फिक्स करना ।
         जीना है तो बस उस पल में जो अभी है। क्या है , क्या नहीं है , क्या होना चाहिये कुछ नहीं । जो सामने है बस वही दुनिया है । वह खुद को उस ढाँचे में डाल तुरंत तबदील हो जाते है । हर स्थिति में माकूल हो जाते है। दुनियादारी से परे अपनी दुनिया बसाते है जो सपनों की नहीं हकीकत की होती है , किसी दूसरे लम्हों की नही उसी वक्त की होती है जिसमें वह जी रहे होते है।
सुनते तो हम भी हैं अक्सर कल में नहीं आज में जियो पर फिक्र तो कल की ही सताती है । ये मासूम जिनको आज और कल में फर्क तक नहीं पता वो तो हम सबकी सोच से परे  " अभी " में  जीते हैं।

  •                                                 _ रूचि तिवारी

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