नमस्कार ! मैं कलम ,
यूँ शोभा बढा़ए दुकान की चमचमा रही थी
एक बाबू आए जिनकी निगाहें कुछ तलाश रहीं थी
तमतमा उठी हथेली और निराशा जाग रही थी
क्योंकि उन्हें मनमुताबिक कलम पसंद आ न रही थी ।
एक बाबू आए जिनकी निगाहें कुछ तलाश रहीं थी
तमतमा उठी हथेली और निराशा जाग रही थी
क्योंकि उन्हें मनमुताबिक कलम पसंद आ न रही थी ।
कुछ नयन इस तरह फिरे
और जा मुझपर टिके
उनके हाथ मुझपर आ गिरे
फिर करने लगे मोलभाव मुझे लिए ।
और जा मुझपर टिके
उनके हाथ मुझपर आ गिरे
फिर करने लगे मोलभाव मुझे लिए ।
यूँ बेबाकी से मुझे चलाने लगे
अपने विचार कागज़ पर उतारने लगे
शब्दों का भंडार इतना गहरा नहीं
बस अपनी अभिरुचि को बरसाने लगे ।
अपने विचार कागज़ पर उतारने लगे
शब्दों का भंडार इतना गहरा नहीं
बस अपनी अभिरुचि को बरसाने लगे ।
पूछ पडे़ एक महाशय ,
क्या अंतर और लहजा़ भी है पता ?
तू कैसे यूँ ही लिखने लगा ?
जा पहले थोडा़ सीख पढ़ आ ।
क्या अंतर और लहजा़ भी है पता ?
तू कैसे यूँ ही लिखने लगा ?
जा पहले थोडा़ सीख पढ़ आ ।
मेरी ओर निहार नज़रें चमचमाई
खिली हुई मुस्कान मुझे समझ न आई
चला कुछ ऐसा सिलसिला
क्योंकि अब था उन्होंने कहा
खिली हुई मुस्कान मुझे समझ न आई
चला कुछ ऐसा सिलसिला
क्योंकि अब था उन्होंने कहा
न मुझे बनना महान तुम्हारे जैसा
न रूतबा न रौब कभी मैंने चाहा
एक रुचि है मेरी इस कलम के लिए
सो अपने विचार मैं ऊकेरने चला।
न रूतबा न रौब कभी मैंने चाहा
एक रुचि है मेरी इस कलम के लिए
सो अपने विचार मैं ऊकेरने चला।
रुचि तिवारी
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