Thursday, November 29, 2018

काफी दिनों बाद!

काफी दिनों बाद
आज तुम्हें यूँ देखा ,
औरों की परवाह छोड़
खुद में मगरुर देखा ।
छोड़ अपनी ख्वाहिशें
जो तुमने हमें देखा ,
कई अरसे बाद 
तुम्हें यूँ खुश देखा ।
गुलाबी शाम में तुम्हें मुस्कराते देखा
हौले-हौले तुम्हें तुमसे मिलता देखा
हाँ , तुम्हारी चमक को आज फिर परखा
गुज़रे कई महीनें , सालों बाद तुम्हारा ये अंदाज़ देखा ।
बरसों बाद तेरे आँचल से फिर लिपटा
लम्बे अरसे बाद बचपन को समेटा
इस कदर तुझे चहकता देखा
तेरा बदन आज फिर झूमते देखा ।
तेरे फैसले पर तुझे मगरुर देखा
आज तुझे न मजबूर देखा
गुरुर रखना अपनी ' रुचि ' पर
क्योंकि आज तेरी एक और जुस्तजू को देखा ।
                                   _ रुचि तिवारी

Thursday, November 22, 2018

हैरान मत होना

जो कभी मुझे गुनगुनाते सुन लेना
तो हैरान मत होना ,
जो कभी मुझे थोडा़ शांत देख लेना
तो परेशान मत होना ।
जो कभी मैं कहीं मगरुर दिख जाऊँ
तो हैरान मत होना ,
सुन ली होगी अपने मन की
बस इतना समझ लेना ।
जो कभी अचानक चहचहा उठूँ
तो हैरान मत होना ,
आज खुलकर मेरा रूप दिखा
बस इतना जान समझ लेना ।
जो कभी थोडा़ शांत नज़र आऊँ
तो परेशान मत होना,
कौंध दिया होगा कुछ मुझे
बस इतना समझ लेना ।
अगर दिख जाऊँ गुनगुनाती
तो हैरान मत होना ,
होंगी बिखेरी खुशियाँ
बस इतना समझ लेना ।
जो मैं अडियल हो जाऊँ कभी
तो हैरान मत होना ,
हलचल है मेरे अंदर
कुछ कर गुज़रने की
बस इतना समझ लेना।
                                             _ रुचि तिवारी

Wednesday, November 21, 2018

विचार मैं ऊकेरने चला

नमस्कार ! मैं कलम ,
यूँ शोभा बढा़ए दुकान की चमचमा रही थी
एक बाबू आए जिनकी निगाहें कुछ तलाश रहीं थी
तमतमा उठी हथेली और निराशा जाग रही थी
क्योंकि उन्हें मनमुताबिक कलम पसंद आ न रही थी ।
कुछ नयन इस तरह फिरे
और जा मुझपर टिके
उनके हाथ मुझपर आ गिरे
फिर करने लगे मोलभाव मुझे लिए ।
यूँ बेबाकी से मुझे चलाने लगे
अपने विचार कागज़ पर उतारने लगे
शब्दों का भंडार इतना गहरा नहीं
बस अपनी अभिरुचि को बरसाने लगे ।
पूछ पडे़ एक महाशय ,
क्या अंतर और लहजा़ भी है पता ?
तू कैसे यूँ ही लिखने लगा ?
जा पहले थोडा़ सीख पढ़ आ ।
मेरी ओर निहार नज़रें चमचमाई
खिली हुई मुस्कान मुझे समझ न आई
चला कुछ ऐसा सिलसिला
क्योंकि अब था उन्होंने कहा
न मुझे बनना महान तुम्हारे जैसा
न रूतबा न रौब कभी मैंने चाहा
एक रुचि है मेरी इस कलम के लिए
सो अपने विचार मैं ऊकेरने चला।
                                              रुचि तिवारी

Wednesday, November 14, 2018

शुक्रिया दीपावली

ओ दीपावली ! तुमको शुक्रिया ।
तुमने दिल उमंग से भर दिया ।
रोशनी थी जो दीयों ने दिया
उनसे सबका घर जगमग जगमग किया।
झिलमिल झिलमिल लडी़ जली
भीनि सी खुशबु उडी़
आपस की आना कानी जली
खुशियों की एक लहर चली।
सूखे रिश्तों में महक पडी़
पास हुई मिठास जो थी कहीं दूर खड़ी
इन गूँजते मकानों में
ठहाकों की फिर आवाज खिली।
छूट गई थी यादें जो वो
सबके मिलने से ताजा हुई
कुछ पुराने किस्सों की
अलबेली ही शुरूआत हुई
मिलना सबका कुछ यूँ हुआ
रिश्तों में गहराई का खुदा कुआं
यूँ थोड़ी फुरसत अपनो को दी
खुद के भीतर ही एक रोशनी कर दी।
वो जगमग जलता दीपक
एक पाठ सीखा गया
छोटी सी है वो लौ
दूर करती है पूरे अँधेरे को वो ।
उन खट्टास को छोड़ मीठा तुम घोल गई
साल भर के लिए फिर बेशकीमती याद  दे गई ।
मिला दी एक बार फिर सबको
अब तो फुरसुत ही कहा है अपनो को ।
शुक्रिया दीपावली ! एक नई आस जगाने को।
शुक्रिया दीपावली  ! हम सबको मिलाने को ।
शुक्रिया दीपावली ! चहुँओर रोशनी जगमगाने को ।
शुक्रिया दीपावली ! खुशियाँ फैलाने को।
               
                                            _ रूचि तिवारी

Tuesday, November 13, 2018

मतदान

छत पर बैठी सोच रही थी
नीचे से एक गूँज उठी थी
एक रिक्शा गाना बजाए
चला हर राह को अपना बनाए।
ध्यान उसने कुछ ऐसा खींचा
कानों को सबके उसने पीटा
नियमों को था उसने मींजा
बच्चें बूढ़ों सभी को घसीटा ।
सुनकर मुझको पता चला
अब तुमको है करना मतदान भला
जिम्मा और ये है अधिकार
व्यर्थ न जाने दो इसे यार ।
अगले दिन अखबार पढा
जिसमें था मतदान को गढा़
दिखे कई मुझे विज्ञापन
दर्शा रहे थे जो अपनापन ।
प्रसारों ने क्या किया बताया
प्रचारों ने क्या करना है समझाया
मुझको तो यही भाया
मतदान सबसे जरुरी यह समझ आया।
अब बस है इतना कहना _
चलो करें मतदान राष्ट्र निर्माण में अपना भी हो योगदान|
एक वोट से देश बदल जाएगा सही चयन से परिवेश बदल जाएगा|
शिक्षा हो या स्वास्थ,  सब कुछ मिलेगा ,तुम्हारी एक उंगली से देश का विकास रूपी पहिआ  भी चलेगा|
परंतु यह संभव तभी होगा जब तुम्हारा वोट  सही होगा|
कुछ लोग तुम्हें झूठे सपने दिखाएंगे धन का लालच देंगे और शराब भी पिलाएंगे
इस भंवर से बच गए तो धर्म जाति के नाम पर भटकाएंगे|
प्रण लेते हैं न डरेंगे न बटेंगे न वोट का सौदा होगा
अब तो सही चुनाव और लोकतंत्र का महल खड़ा होगा|
                                  _ रुचि तिवारी

Sunday, November 11, 2018

मैं हिंदी

   नमस्कार ! मैं हिंदी ,
          जो उस दिन गद्य के रुप में
          सबके समक्ष प्रकट हो गई ,
          कह दिया मुझे ,
          थोडे़ साहित्यिक सुंदर शब्द मिला लेना
          जो उसके बाद एक दिन काव्य रूप में
          सबके सामने आ गई ,
          तो उर्दू में जा मिलने का फरमान दे दिया
          जो शायरी , गजलों में आ गई
          उर्दू फारसी में खो सी गई ,
          मंत्रों के उच्चारण अर्थ में
          संस्कृत सी मैं हो गई
           एक सफर मैं कर रही
           कितनों से मिलते हुए
           खुद का वजूद तलाश रही
           थोडा़ सिमटे , थोडा़ घुलते मिलते हुए ।
                                              _ रूचि तिवारी
           

Tuesday, November 6, 2018

आज नहीं ' अभी ' में जीते हैं

दृश्य 1 : एक जनरल किराना स्टोर , यूँ तो मैं भाई के साथ खड़ी थी और गोलू के खटाखट सामान निकलने की तरकीब गौर कर रही थी तभी वहाँ 3 साल की रूही आई । रूही को मैं जानती नहीं थी । वह अपने दादा जी के साथ आई थी। हम भी खरीददारी कर ही रहे थे । रूही की पायल की छनक ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा । सफेद रंग की प्यारी-सी फ्रॉक में वह खिलखिलाता हुआ चेहरा और चमकदार बदन में वह किसी असली परी को हराकर अपना ही नूर बरसा रही थी । दुकान में प्रवेश उसने जिस खिलखिलाहट से थी उससे तो वहाँ का पूरा समां ही बंध गया था। दादा जी भी सामान की पर्ची गोलू को थमा स्नैक्स काॅर्नर गये और वहाँ पर रूही के बोलते ही " बब्बा ये वाला ये वाला " करते वो सारे पैकेट उठाते गये जबतक रूही ने चुप होकर राहत भरी साँस नहीं ले ली । तब तक गोलू भी दादा जी का पूरा सामान लगभग पैक कर ही चुका था ।   वो सारे पैकेट्स गोलू को दिए और अलग बैग में रखने को कहा । वह अलग बैग उन्होंने रूही को पकड़ाया । बैग पकड़ते ही रूही के चेहरे की चमक संग उसने जो चाल चलनी शुरू की उसे देख ऐसा लग रहा था मानों रुही को वह पूर्ण संतुष्टी मिल गई हो जो उसे जीवन में चाहिये थी। बैग में इतना कुछ भी नहीं था कि उसे वह दो से तीन दिन तक रख सके । सिर्फ़ चिप्स के तीन या चार पैकेट जिन्हे वह चंद घंटों या ज्यादा से ज्यादा शाम तक में  खत्म कर सकती है ।
दृश्य 2 : मार्केट से वापस लौटने पर घर के पास ही रह रहे 6 वर्षीय सुबोध पर नज़र गई । उसके घर की पुताई का अंतिम ही चरण चल रहा था आज । पुताई वाले अंकल लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़े पुताई कर रहे थे। सीढ़ी में नीचे तरफ़ जूट की उलझी हुई-सी रस्सी उसी में बंधी हुई फैली थी जिसमें अचानक वहाँ से आते-जाते कोई भी फँसकर गिर सकता था । सुबोध के पास वैसे तो खिलौने का अंबार है। कोई उसके खिलौने छू भी नही सकता । हाँ , आरती , स्नेहा , परी, आरु , क्षति और शुभ के साथ खेलते वक्त थोडा़ बाँट लेगा पर अगर कभी बिना साहब के मूड के छू लो तो खैरियत खुद की मनानी पड़ती है। खैर , आज सुबोध उन खिलौनों की दुनिया से दूर उस रस्सी को सुलझा रहा था जो किसी "  पज़ल " से कम नहीं  थी। ऊपर बालकनी से आंटी उसे चिल्ला चिल्लाकर मना कर रहीं थी पर वह तो " अभी " में जी रहा था । " अभी " उसके पास खेलने सिर्फ़ वह रस्सी थी । उसने यह नहीं सोचा कि सिर्फ़ आज तक ही उस रस्सी और सीढ़ी का उसके साथ साथ है । इस समय उसे सिर्फ़ वह रस्सी सुलझाना था जो उसके सामने थी मानों जैसे की उसके जीवन का लक्ष्य सिर्फ़ पूर्ण करके हासिल होगा।
             कितनी अनोखी होती है इन मासूमों की दुनिया । न तो कल किससे खेले थे उसकी सुध और न तो कल किससे खेलना है उसकी चिंता । आज क्या करना है क्या नहीं न तो कोई शैड्यूल और न ही टाइम मैनेज कर मीटिंग फिक्स करना ।
         जीना है तो बस उस पल में जो अभी है। क्या है , क्या नहीं है , क्या होना चाहिये कुछ नहीं । जो सामने है बस वही दुनिया है । वह खुद को उस ढाँचे में डाल तुरंत तबदील हो जाते है । हर स्थिति में माकूल हो जाते है। दुनियादारी से परे अपनी दुनिया बसाते है जो सपनों की नहीं हकीकत की होती है , किसी दूसरे लम्हों की नही उसी वक्त की होती है जिसमें वह जी रहे होते है।
सुनते तो हम भी हैं अक्सर कल में नहीं आज में जियो पर फिक्र तो कल की ही सताती है । ये मासूम जिनको आज और कल में फर्क तक नहीं पता वो तो हम सबकी सोच से परे  " अभी " में  जीते हैं।

  •                                                 _ रूचि तिवारी

Sunday, November 4, 2018

फर्क प्राइस टैग का !!!

१ नवंबर को रचनाकार " सुरेश कुशवाहा ' तन्मय ' " जी कि " मानसिकता " नामक लघुकथा पढ़ी । उनकी रचना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या अब हम वही भारतीय रह गये हैं जिनके लिए देश की माटी , देश के किसान , हमारे स्वदेशी उत्पाद सर्वोपरि थे ? या कहीं बहुत कुछ खो सा गया है ? आप सभी के साथ वह लघुकथा और अपने विचार साझा करने का विचार की और दो दिन बाद सुरेश सर के संपर्क में आकर अपने ब्लाग पर पब्लिश करने की अनुमति ली। खैर , दिवाली को लेकर चल रही तैयारियों की व्यस्तता के चलते थोड़ी देर से आपके समक्ष ला रहीं हूँ ।
लघुकथा इस प्रकार है ~
                         " मानसिकता  "
दीपावली से दो दिन पहले खरीदारी के लिए वो सबसे पहले पटाखा बाजार पहुंचा। अपने एक परिचित की दुकान से चौगुनी कीमत पर एक हजार के पटाखे खरीदे।
फिर वह शॉपिंग सेंटर पहुंचा, यहां मिठाई की सबसे बड़ी दुकान पर जाकर डिब्बे सहित तौली गई हजार रूपये की मिठाई झोले में डाली।
इसके बाद पूजा प्रसाद के लिए लाई-बताशे, फल-फूल और रंगोली आदि खरीदकर शरीर में आई थकान मिटाने के लिए पास के कॉफी हाउस में चला गया।
कुछ देर बाद कॉफी के चालीस रूपये के साथ अलग से बैरे की टीप के दस रूपये प्लेट में रखते हुए बाहर आया और मिट्टी के दीयों की दुकान की ओर बढ़ गया।
“ क्या भाव से दे रहे हो यह दीये ? ”
“ आईये बाबूजी, ले लीजिये, दस रूपये के छह दे रहे हैं ”
“ अरे!  इतने महंगे दीये, जरा ढंग से लगाओ, मिट्टी के दीयों की इतनी कीमत ? ”
“ बाबूजी, बिल्कुल वाजिब दाम में दे रहे हैं। देखो तो, शहर के विस्तार के साथ इनको बनाने की मिट्टी भी आसपास मुश्किल से मिल पाती है। फिर इन्हें बनाने सुखाने में कितनी झंझट है। वैसे भी मोमबत्तियों और बिजली की लड़ियों के चलते आप जैसे अब कम ही लोग दीये खरीदते हैं। ”
“ अच्छा ऐसा करो, दस रूपये के आठ लगा लो ”,
दुकानदार कुछ जवाब दे पाता इससे पहले ही वह पास की दुकान पर चला गया। वहां भी बात नहीं बनी। आखिर तीन चार जगह घूमने के बाद एक दुकान पर मन मुताबिक भाव तय कर वह अपने हाथ से छांट-छांट कर दीये रखने लगा।
“ ये दीये छोटे बड़े क्यों हैं? एक साइज में होना चाहिए सारे दीये ”
“ बाबूजी, ये दीये हम हाथों से बनाते हैं, इनके कोई सांचे नहीं होते इसलिए.... ”
घर जाकर पत्नी के हाथ में सामान का झोला थमाते हुए वह कह रहा था –
“ ये महंगाई पता नहीं कहा जा कर दम लेगी। अब देखों ना, मिट्टी के दीयों के भाव भी आसमान छूने लगे हैं। ”
                                           
                                  _ सुरेश कुशवाहा ' तन्मय '
सबसे पहले गौर करने वाली बात यह है कि रचनाकार ने कितनी खूबसूरत तरीके और चुनिन्दा शब्दों के जरिये इतनी बड़ी बात कह दी । सही ही तो है , अगर वही दीये  किसी दुकान में पैकेट में 80 रु. के 6 प्राइस टैग के साथ बिकते तो बेशक खुशी-खुशी बिना मोल-भाव किए खरीद लेते । क्यों ? क्योंकि उसमें टैग लगा होता एम आर पी (MRP) का । यह बात सिर्फ़ दीयों तक सिमित नहीं । चलिए एक और उदाहरण लेते है , हमारे घर के नजदीकी बाजा़र में बैठे या हमारे घर के दरवाजे तक आने वाले सब्ज़ी या फल वाले भईया का । उनके पास से सब्ज़ी या फल खरीदते वक्त हमारी प्रतिक्रियाएं कुछ इस प्रकार होती हैं ~ अरे भईया ! बहुत मँहगा बता रहे है , सही रेट बताईये । यूँ कुछ 10 ~15 मिनट मोलभाव कर खरीददारी होती है परंतु वही सब्ज़ी या फल हम बिना मोलभाव के माॅल से ले आते है । वह भी उससे मँहगी कीमत पर । वहाँ क्यों नहीं मोलभाव किया जाता ?? कमी सिर्फ़ प्राइस टैग की ही तो है इन लोगों के पास । वस्तु एवं उत्पाद तो वही है ।
एक बात और है कि अब दीपावली पर माटी के दीये कम और मोमबत्तियाँ एवं रंग बिरंगी लाईट प्रचलन में ज्यादा है । स्वदेशी उत्पाद को छोड़ विदेशी के पीछे भागना और परंपरागत तरीकों को रौंदते हुए नए तरीके से त्योहार मनाना एक विचारणीय विषय है ।
               
                                  _ रुचि तिवारी

थैंक्यू KK! हम रहें या न रहें कल, कल याद आएंगे ये पल, प्यार के पल...

KK, 90's के दौर का वो नाम जिसकी आवाज सुन हम सभी बड़े हुए। 'कुछ करने की हो आस-आस... आशाएं' या 'अभी-अभी तो मिले हो, अभी न करो ...