तमन्नाओं ने मुझे किस राह पर लाया,
मैं कभी तकाज़ा ही नहीं लगा पाया,
पूँछा जो खुद से मैनें खुद की रज़ा,
पहला ही अक्षर ‘अ’ से “आस्तित्व” आया..।
मैं कभी तकाज़ा ही नहीं लगा पाया,
पूँछा जो खुद से मैनें खुद की रज़ा,
पहला ही अक्षर ‘अ’ से “आस्तित्व” आया..।
आरजू की राह से जो आस्तित्व के पथ पर आई,
खुद को मैं अकेला न पाई ,
थी एक बहुत बड़ी भीड़,
जिसमें हर कोई ढूँढ रहा था अपनी रीढ़।
खुद को मैं अकेला न पाई ,
थी एक बहुत बड़ी भीड़,
जिसमें हर कोई ढूँढ रहा था अपनी रीढ़।
एक पिता मिले मुझे उस राह में,
लीन थे जो अंतर्मन की आह में।
बेबसी और लाचारी टपक रही थी चेहरे से,
क्योंकि नकाबिल थे वो अपनी नजरो में।
बेबाकी से मैनें पूँछ ही लिया,
आप कैसे और क्यों इस राह में भला ???
नाकामयाब थे बेटे की फरियाद में,
सो अपने वजूद को तलाशने मैं चला।
लीन थे जो अंतर्मन की आह में।
बेबसी और लाचारी टपक रही थी चेहरे से,
क्योंकि नकाबिल थे वो अपनी नजरो में।
बेबाकी से मैनें पूँछ ही लिया,
आप कैसे और क्यों इस राह में भला ???
नाकामयाब थे बेटे की फरियाद में,
सो अपने वजूद को तलाशने मैं चला।
आगे जो चंद कदम मैं बढ़ाई,
जाकर एक बूढ़ी माँ से टकराई ,
देख उनकी हालत, आँखे मेरी भर आईं ,
इस उम्र में अपने बेटे को वो कैसे न सुहाई??
जाकर एक बूढ़ी माँ से टकराई ,
देख उनकी हालत, आँखे मेरी भर आईं ,
इस उम्र में अपने बेटे को वो कैसे न सुहाई??
दूर कुछ कदम एक बेटा था खड़ा,
बेबसी की सीमा तक था चढ़ चुका,
घर वालो पर बोझ था वो बना,
घर का बेटा होकर भी ज़िम्मेदारी न बांट सका।
बेबसी की सीमा तक था चढ़ चुका,
घर वालो पर बोझ था वो बना,
घर का बेटा होकर भी ज़िम्मेदारी न बांट सका।
आंखे पोंछ मैं आगे बढ़ रही थी,
मुसलसल सबसे मिलते चल रही थी।
एक पीड़ित लड़की किनारे रो रही थी,
अपने आस्तित्व को ही कोस रही थी।
सितमगिरी को सह रही थी,
खुद से ही कितना कुछ कह रही थी।
मुसलसल सबसे मिलते चल रही थी।
एक पीड़ित लड़की किनारे रो रही थी,
अपने आस्तित्व को ही कोस रही थी।
सितमगिरी को सह रही थी,
खुद से ही कितना कुछ कह रही थी।
कदमों का सिलसिला फिर बढ़ा,
जाकर नदी के तट पर रुका।
ज्यो ही मुँह धुलने को हाथ था बढ़ा ,
मैनें खुद को तुरंत पकड़ा।
उस इठलाती नदी में अब वो बात नहीं रही,
अपनी हस्ती से कही वो खो रही।
चाहा मैनें जानना वजह उसकी बदहाली की,
बोली मैं अपना वजूद ही गंवा चुकी।
न मुझमे अब कल-कल का स्वर है,
और न ही वो इठलाती धार।
सूख चुकी मैं इस कदर कि,
एक लंबे नाले जैसा हुआ हाल।
जाकर नदी के तट पर रुका।
ज्यो ही मुँह धुलने को हाथ था बढ़ा ,
मैनें खुद को तुरंत पकड़ा।
उस इठलाती नदी में अब वो बात नहीं रही,
अपनी हस्ती से कही वो खो रही।
चाहा मैनें जानना वजह उसकी बदहाली की,
बोली मैं अपना वजूद ही गंवा चुकी।
न मुझमे अब कल-कल का स्वर है,
और न ही वो इठलाती धार।
सूख चुकी मैं इस कदर कि,
एक लंबे नाले जैसा हुआ हाल।
दौड़ी भागी मैं बिना एक पल गँवाए,
खडे़ थे वो कटे हुए पेड़ अपनी जड़ जमाए,
सूखी शाखों से मुझसे कहलवाए,
तुम इंसानों को मेरे हर पत्ते क्यों न भाए ???
खडे़ थे वो कटे हुए पेड़ अपनी जड़ जमाए,
सूखी शाखों से मुझसे कहलवाए,
तुम इंसानों को मेरे हर पत्ते क्यों न भाए ???
जम गये ऐसे पैर मेरे,
होंठो पर सिकुडन आई।
खुद के आस्तित्व को सब तलाश रहे,
प्रकृति की सुध कैसे न आई।
होंठो पर सिकुडन आई।
खुद के आस्तित्व को सब तलाश रहे,
प्रकृति की सुध कैसे न आई।
एक वीरान सा महल है,
सब लड़ रहे अपने वजूद की लड़ाई।
ये एक ऐसी कश्मकश है,
कि जुदा हो रहे है अब भाई-भाई…..!!!
सब लड़ रहे अपने वजूद की लड़ाई।
ये एक ऐसी कश्मकश है,
कि जुदा हो रहे है अब भाई-भाई…..!!!
_रुचि तिवारी।
अस्तित्व के हर सजीव पहलू को बखूबी शब्दों में पिरोया है,, बहुत बढ़िया 👌👌 और अंतिम चार पंक्तियां,आज की कटु सच्चाई को बतलाती है,, keep it up 👍
ReplyDeletethankyou so much....
Deletethanks....
ReplyDeleteVry nic
ReplyDeletethankyou
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