वक्त का पहिया चलता है,
मुसाफ़िर घर से निकलता है,
अग्यारों से जा मिलता है,
दुनिया के दस्तूर समझता है,
पग पग मंजिल ओर बढ़ता है,
अपना इतिहास गढ़ता है,
पल पल में खुद ही सँवरता है,
न जाने कब कब खुद से जंग करता है,
गिरते पड़ते चलता है ,
लकीरें से लड़ता भिड़ता है ,
टीलों से टकराता है ,
मुसाफ़िर चलता जाता है,
कभी बहकता कभी ठहरता ,
स्वविवेक को आज़माता है ,
इस रंगीन जमात में ,
सबका साँचा रूप दिखता है,
दिन महीने रात सब गिनते चलता है,
लक्ष्य की भूख लिए इत्माम की ओर चलता है,
जैसे जैसे सफलता की ओर बढ़ता है ,
धीरे धीरे ही अपनी किस्मत बदलता है ।
_रुचि तिवारी
Waah Waah bhut hi badiya
ReplyDeleteVery nice & well experienced
ReplyDeletethankyou
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