इस जमाने में कहाँ ऐसे सुख नसीब होते हैं,
दादी-नानी के किस्सों में बच्चे अब कहाँ खोते हैं ,
दूर हो जाते हैं लाडले अपने परिवार को ले,
वृद्धजन तो अब आश्रमों में होते हैं ।
बालपन में अब वो कहानियाँ कौन सुनता है ,
बच्चों के मन में संस्कार अब कौन बुनता है,
संस्कृति के पथ को अब कौन चुनता है ,
क्या आदर्श की धुन अब कोई सुनता है?
दादी-नानी का अब प्यार कहाँ मिलता है,
छुट्टियों का समय भी तो असाइनमेंट बनाने में बीतता है,
वो परियां, वो पौराणिक कथाएँ अब कौन कहता है,
अब के बच्चों का जीवन मोबाइल पर शुरू और वहीं खत्म होता है।
_रुचि तिवारी