कई दफा लोगों की बहस होती हैं,
किसी और से नहीं,
खुद से!
कुछ करने को दिल चाहता है ,
पर दिमाग में जंग होती है,
क्यों ?
क्योंकि एक सीमित सोच उसमें समाहित होती है!
बचपन से ही समझा दिया जाता है,
समाज का तौर-तरीका बता दिया जाता है,
एक सोच, नहीं; सीमित सोच,
रोक देती है ये-वो करने से,
क्योंकि समाज में इसे बुरा कहा जाता है!
जब उस दायरे को साथ लिए,
थोड़ा बाहर आते हैं,
उस सीमित सोच के कारण शायद,
मॉर्डन दुनिया से डिफीट हो जाते हैं!
कोई आइडिया जब घिसा-पिटा हो जाता है,
थींक आउट ऑफ दी बॉक्स कहा जाता है,
कुछ समय इन दायरों को समझने में लग जाता है,
हाँ, सफर का एक और पड़ाव शुरू हो जाता है!
फिर धीरे-धीरे नयी बातें जानते हैं,
उस सोच के आगे भी एक दुनिया है!
इसे अचंभा मानते हैं,
फिर दिमाग के घोड़ों को दौड़ाते हैं,
और लाइफ में प्रैक्टिकल होने लग जाते हैं!
कुछ अलग करने की चाह हो जाती है,
ऑटोमैटिकली, बॉक्स की बाउंड्री बड़ी हो जाती है,
आइडियाज़ में क्रिएटिविटी आ ही जाती है,
मॉर्डन लाइफ की एक और स्टोरी बन जाती है!
उन दायरों को चीर के ही,
बदलाव की पहल होती है,
ये किसने कहा?
कामयाबी में किसी की मेहर (मेहरबानी) होती है!
-रुचि तिवारी