ख्वाबों ने करवटें ले ली है अब,
न जाने पूरे होंगे कब?
आंखों में सजा निकले थे हम तब,
अब तो खामोश हो गये हैं ये लब!
असलियत से रूबरू होने में थोड़ा वक्त लगता है,
जब भी आंख खुले थोड़ा दर्द होता है,
ख्वाब ख्वाब ही रहे तो अच्छा होता है,
भला कौन से आसमां में दिन में तारा होता है!
ख्वाबों के पीछे हम सच भूल जाते हैं,
दौड़े-दौड़े अनजान राह पर पहुंच जाते हैं,
शायद समझने में बहुत वक्त लगा जाते हैं,
तब तक दरकिनार हम लाखों-करोड़ों काम कर जाते हैं!
धीरे-धीरे अपनों को भूल जाते हैं,
फिर अचानक खुद का साथ छोड़ जाते है,
न जाने कब कैसे दिन, महीने, साल गुजर जाते है,
बरसों पहले हुई खुद से गुफ्तगू की यादों के सहारे रह जाते है!
ख्वाब महज एक ख्वाब ही रहे,
हंसीन हो या बुरा; सिर्फ़ आंखों में ही बसे,
नींद जब खुले तो बस खट्टी-मीठी उसकी यादें ही रहें,
जरूरी तो नहीं कि एक ख्वाब जिंदगी की असलियत बने!
_ रुचि तिवारी